माँ हूँ न ..
आदत है तिरस्कार सहने की
कोख उजाड दी तूने, चुप रही मैं
सर से पेडों के साए छीने, खामोश घुटी
टुकडे टुकडे हिस्से बाँटे,
फिर भी मौन रही
अब दंश झेल रही हूँ
अपनी संतानों के निगलने के तोहमत का
सच मानो,
वे ज़मीन्दोज़ न हुई होती
तो समन्दर निगल जाता उनको
या कोई और वजहें बनती उनकी तबाही की
मैंने देखी थी उनकी हथेली की रेखाएँ
दरअसल काँप गई थी मैं एक पल के लिए उस दिन
इक आह निकल गई थी मुँह से
जब सुना था लोगों से
सपाट करने की सोच रहे थे तुम उन पहाडियों को
जिन से कभी बहते थे पानी के सोते
ये कैसी तिजारत है तुम्हारी
ये कैसी ठेकेदारी है
ख़त्म हो गए जब घने जंगल
तो पत्थरों की बारी है
दिल पर हाथ रख कर बोलो
एक पल छोड कर अपनी दुकान
क्या नहीं चाहिए मुझको भी
बस एक मुट्ठी आसमान...!!
No comments:
Post a Comment