Sunday, May 24, 2015

‘यूथेनेसिया’

1.

‘यूथेनेसिया’ ‘एक्टिव’ हो या ‘पैसिव’
क्या फर्क़ पडता है
मर तो उसी दिन गई थी मैं
कल तो छोडा है केवल
अपना स्थूल शरीर मैंने ..!!
19.05.2015

Saturday, May 23, 2015

यूथेनेसिया

2.

मर तो उसी दिन गई थी मैं
जब एक बहशी ने तार-तार की थी इज्जत मेरी
और रात भर पडी थी मैं
नग्न, अचेत
अस्पताल के बेसमेंट में

उसके बाद न जाने कितनी बार मरना पडा मुझे
अदालत की चारदीवारी में
बहस-मुबाहिसों में
जुलूस-हडतालों में  
टीवी. और अख़बारों की सुर्ख़ियों में
क्या यह सोच मौत से कम है कि
मैंने काटी उम्र  क़ैद
और उस दरिन्दे ने महज सात साल....!!  

(अरुणा शानबाग की मृत्यु पर मेरी श्रद्धांजलि)

अरुणा शानबाग की आत्मकथा


मर तो उसी दिन गई थी मैं
जब दो ही महीने बाद दुल्हन बनने के सपने
चूर चूर बिखरे पडे थे
अस्पताल के बेसमेंट में
सबेरे उन सपनों की किरचें किसी के पॉव तले लगे थे
और मैं आसीयू में लाई गई थी

ठीक से कह नहीं सकती
लोगों से कहते सुना था
‘रेप’ हुआ था मेरा बीती रात                      
ना..ना... मुँह पर हाथ मत रखो मेरे
कह लेने दो मुझे के दिल से बोझ हटे
सच तो यह है कि
कहना, सुनना या देखना
यहाँ तक कि सोचना भी
कहाँ था बस में मेरे
उस दरिन्दे ने इस कदर चेन से बाँधा था गर्दन मेरी  
कि दिमाग की कई नसों ने
दम तोड दिया था एक साथ ही
फिर कैसे मैं देखती, सुनती, शोर मचाती
या कुछ महसूस करती  
पडी रही लोथ सी
रात भर
सुनसान, अँधेरे बेसमेंट में
और देखता रहा तमाशा
मेरे अन्दर का द्रष्टा
मुझसे ही बाहर निकल
पूरे बयालीस साल....   

याद आता है....
नहीं, मुझे तो कुछ भी याद नहीं
यह तो द्रष्टा का कहना है कि
निकला था एक सिलसिला
मेरे मरने का हर पल हर छिन
उसके बाद 

सबसे पहली मौत इस सोच से आई
कि धोखा है नामों में 
युगों का फर्क़ है शायद  
एक डाकू था त्रेता युग का
जिसने पनाह दी थी सीता को वाल्मीकि बन   
एक नाम का वाल्मीकि यह था
कलयुग का
जिसने लूटा मुझको डाकू बन

एक मौत आई थी जब
कान के बूँदे लूटने का आरोप
लगाया गया था उस दरिन्दे पर और
छिपाया गया था वाक़्या ‘रेप’ का
जैसे सोने के गहने      
मेरी अस्मिता के लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण हों 

एक मौत उस वक्त भी आई थी  
जब मेरे सपनों के राजकुमार ने
जो आता था मुझे देखने हर रोज़
बन्द कर दिया था आना मुझसे मिलने अचानक ही
शायद पता चल गया था उसे
मेरी बेहोशी के बारे में  
कि कॉमा नहीं,
फुलस्टॉप हूँ मैं  


 19.05.2015



Tuesday, May 5, 2015

एक मुट्ठी आसमान


माँ हूँ न ..
आदत है तिरस्कार सहने की
कोख उजाड दी तूने, चुप रही मैं   
सर से पेडों के साए छीने, खामोश घुटी  
टुकडे टुकडे हिस्से बाँटे,
फिर भी मौन रही
अब दंश झेल रही हूँ  
अपनी संतानों के निगलने के तोहमत का  
सच मानो,
वे ज़मीन्दोज़ न हुई होती
तो समन्दर निगल जाता उनको
या कोई और वजहें बनती उनकी तबाही की
मैंने देखी थी उनकी हथेली की रेखाएँ   
दरअसल काँप गई थी मैं एक पल के लिए उस दिन
इक आह निकल गई थी मुँह से           
जब सुना था लोगों से
सपाट करने की सोच रहे थे तुम उन पहाडियों को
जिन से कभी बहते थे पानी के सोते
ये कैसी तिजारत है तुम्हारी  
ये कैसी ठेकेदारी है 
ख़त्म हो गए जब घने जंगल 
तो पत्थरों की बारी है
दिल पर हाथ रख कर बोलो
एक पल छोड कर अपनी दुकान    
क्या नहीं चाहिए मुझको भी
बस एक मुट्ठी आसमान...!!  



Saturday, May 2, 2015

पछतावा

(भूकम्प के बाद...)
ज़रा सी करवट ही तो बदलनी चाही थी मैंने
टूट रहा था बदन मेरा
एक ही करवट सोए हुए बरसों से
सोचा ज़रा अँगडाई ले लूँ
के थोडी साँस मिले

गर मालूम होता
साँस लेना भी खता है मेरी
और इलजाम लगेगा मेरे सर
छ हजार बच्चों को लीलने का
साँस रोके पडी रहती
एक ही करवट में
दम साधे युगों तक 
दोषमुक्त...पापरहित...!!