मर तो उसी दिन गई थी मैं
जब दो ही महीने बाद दुल्हन
बनने के सपने
चूर चूर बिखरे पडे थे
अस्पताल के बेसमेंट में
सबेरे उन सपनों की किरचें
किसी के पॉव तले लगे थे
और मैं आसीयू में लाई गई थी
ठीक से कह नहीं सकती
लोगों से कहते सुना था
‘रेप’ हुआ था मेरा बीती रात
ना..ना... मुँह पर हाथ मत रखो
मेरे
कह लेने दो मुझे के दिल से
बोझ हटे
सच तो यह है कि
कहना, सुनना
या देखना
यहाँ तक कि सोचना भी
कहाँ
था बस में मेरे
उस दरिन्दे ने इस कदर चेन
से बाँधा था गर्दन मेरी
कि दिमाग की कई नसों ने
दम तोड दिया था एक साथ ही
फिर कैसे मैं देखती, सुनती,
शोर मचाती
या कुछ महसूस करती
पडी रही लोथ सी
रात भर
सुनसान, अँधेरे बेसमेंट में
और देखता रहा तमाशा
मेरे अन्दर का द्रष्टा
मुझसे ही बाहर निकल
पूरे बयालीस साल....
याद आता है....
नहीं, मुझे
तो कुछ भी याद नहीं
यह तो द्रष्टा का कहना है
कि
निकला था एक सिलसिला
मेरे मरने का हर पल हर छिन
उसके बाद
सबसे पहली मौत इस सोच से आई
कि धोखा है नामों में
युगों का फर्क़ है शायद
एक डाकू था त्रेता युग का
जिसने पनाह दी थी सीता को वाल्मीकि
बन
एक नाम का वाल्मीकि यह था
कलयुग का
जिसने लूटा मुझको डाकू बन
एक मौत आई थी जब
कान के बूँदे लूटने का आरोप
लगाया गया था उस दरिन्दे पर
और
छिपाया गया था वाक़्या ‘रेप’
का
जैसे सोने के गहने
मेरी अस्मिता के लिए ज्यादा
महत्त्वपूर्ण हों
एक मौत उस वक्त भी आई थी
जब मेरे सपनों के राजकुमार
ने
जो आता था मुझे देखने हर
रोज़
बन्द कर दिया था आना मुझसे
मिलने अचानक ही
शायद पता चल गया था उसे
मेरी बेहोशी के बारे में
कि कॉमा नहीं,
फुलस्टॉप हूँ मैं
19.05.2015