Monday, December 16, 2013

प्रवासी के कुछ ख़त

प्रवासी के कुछ ख़त

1.        

आज अचानक ही ठंढ बढ गई
घना कोहरा है
गाडी चला रहा है ड्राइवर
सडक के बीच सफेद पट्टी थामे
धीरे-धीरे
एहतियात और एतमाद के साथ
सामने से कोई दूसरी गाडी आ जाए
गर अचानक  
वैसे ही सफेद पट्टी पर
तो दोनों डरते हैं
अपने अपने किनारे पकडने में

2.        

रात कुछ ज्यादा हो गई है
लौट रहा हूँ दौरे से
अभी खाना बनाना भी है बाक़ी
और माँजने हैं सबेरे के बर्तन
ठंढ कुछ बढ गई है
कनकनी सी है हवाओं में
पानी छूने में लगता है डर
हाथ जम न जाए कहीं ...

याद आते हैं वे जाडों की रात
जब तुम किचेन का काम समेट
आती थी बिस्तर में 
और छूती थी
अपने ठंढे हाथों से जिस्म मेरा
मैं कैसा चिहुँकता था
मेरी नाराजगी से सहम जाती थी तुम
आज मैं सोचता हूँ
मैं इन जमे हाथों से
गर छू लूँ सुर्ख़ गाल तेरे
तो क्या करोगी तुम
मुझे पक्का यकीं है कि
थाम लोगी हथेलियाँ मेरी
चूम लोगी खुरदुरे हाथ मेरे
पिघला दोगी हाथों की ठंढक
और भर दोगी गर्मियाँ उनमें  
है न...... 

3.        

जानती हो...
मैं अब खाना बनाना सीख चुका हूँ
पहले की तरह
सिर्फ पावरोटी-चाय या मैगी खाकर
दिन नहीं गुजारता
पूरे सलीके से सब्जियों में छौंक लगाता हूँ
आकर देखो कभी
तेजपत्ते की खुशबू और हींग की दाल खाने के बाद
चूमोगी मेरी ऊँगलियाँ भी तुम  


4.        


तुम भी तो लौटी होगी देर शाम दफ्तर से
थक कर निढाल सोफे पर गिरी होगी
चाय बनाने की भी हिम्मत नहीं होगी
सैन्डिल फेंकी होगी इधर उधर
और पर्स पडा होगा कालीन पर
यूँ ही घंटे भर पडे रहने के बाद
उठी होगी और कुछ भी डाल लिया होगा पेट में बासी
सोने के पहले 

बस यही सोच कर तुम्हारे लिए भी
मैं डाल देता हूँ एक मुट्ठी
चावल कुकर में
जानती हो...
फिर सबेरे छत पर
ख़ूब शोर मचाते हैं परिन्दें


5.        

शाम ढलते ही
जब परिन्दे अपने घोंसले की ओर उडते हैं
रहता हूँ उस वक्त मैं अपने ऑफिस में  
सर घुसाए फाइलों में
और देर तलक बैठा रहता हूँ
जबतक जेनरेटर की घडघड सुनाई देती है
डरता हूँ घर आने में
घुप्प अँधेरे में सीढियों पर चढते
कई बार टकराया हूँ दीवारों से
और करनी पडती है ताला खोलने में भी मशक्कत  

एक मुद्दत हो गई टी.वी. देखे
कहो, कौन सा सीरियल आजकल देख रही हो तुम
अब तो आसां हो गई होंगी तुम्हारी रातें
जब आता होगा तुम्हारे पसन्दीदा सीरियल का समय
या मिस करती हो न्यूज चैनल की ज़िद्द मेरी  

6.              

बहुत कुछ बदल गया
अकेले रहने में
अब बाल या नाख़ून बढते हैं
तो महीनों बढे रहते हैं
कोई कुछ भी नहीं कहता
‘शेव’ भी रोज़ नहीं करता
और कपडे भी कहाँ धुल पाते हैं रोज़ाना

समझने लगा हूँ
क्यों तुम चीजों को
इतना परख कर लेती थी दूकानों से
‘विम’ अच्छा या ‘एक्सपर्ट’ बेहतर
हथेलियाँ खुरदरी नहीं होंगी किस साबुन से
कौन सी चीज ‘इकॉनॉमिक’ पैक में
किन चीजों पर कितनी छूट   
अब मैं भी जान गया हूँ
चीजों के दाम
और पता चल गया है
आटे-दाल के भाव

मेरे बग़ैर तुम कितना बदली
लिखना जरूर
अगली ख़त में

14.12.2013 
7.  

कल रात उतर आया था
चाँद मेरे कमरे में
रोशनदान से
सोते वक्त जब करवट बदली
तो चौंक पडा था मैं
नीचे, टाइल्स बीछी फर्श पर
अर्श से उतर कर बैठा था चाँद
छोटी जगह है यह
शहरी आबो-हवा से दूर
यहाँ पहचानते हैं लोग मुझे
अदब से पेश आते हैं मुझसे  
अब चाँद-सितारे भी लग गए हैं
ख़ैर-मकदम में मेरे


18.12.2013  

Friday, December 13, 2013

मधुबनी

मधुबनी

1. 
न ऊँची दूकान,
न फीका पकवान
लोगों के मुँह में पान
माछ और मखान

मन्दिरों के घंटे
मस्जिदों के अजान
मौलवी की तकरीरें
पंडितों के व्याख्यान

गलियाँ ही गलियाँ
गलियों में बहते नाले
फैले कचरे, अवरूद्ध बहान
एक दूसरे से सटे मकान
घूमते सूअर, साँढ और श्वान

फिर भी कहते हैं सुजान
है इसकी एक अलग पहचान  
प्राचीन संस्कृति और वैदिक ज्ञान
की अब तक खोई न शान  
सौराठ सभा, मधुबनी पेंटिंग
गूँजे चहुँ ओर विद्यापति गान
है धन्य नगर मधुबनी महान


2.

पाँच सौ पचहत्तर गलियों का यह शहर
ओढे हुए है अभी भी गाँव का दुशाला  
डरता है शहर की आबो-हवा से
और शहर में तब्दील होने से  

गलियों से बाहर निकलते ही
शुरु हो जाता है
गाँव का विस्तार
जलकुम्भी, सिंघाडा या मखाना के  
पोखर और तालाब

दूर दूर तक खेत ही खेत
कुश के लहलहाते पौधे
आमों का जंगल
बाँसों का झुरमुट
अक्सर दिख जाता
दूर दिशा से आए
खेतों में उतरे पक्षी
या उडते बगुले एकजुट  
माथे पर झापी उठाए
या अपनी झोपडी को गोबर से लीपते
या दीवारों पर बेल-बूटा बनाती  
माता जानकी की याद दिलाती
गाँव की महिलाएँ
इस शहर का नाम है मधुबनी

आओ इसे शहर का जामा पहनाएँ
क्यों न इसे हनीबनी कह कर बुलाएँ  






28.11.2013  

Saturday, October 26, 2013

निर्भया

निर्भया

निर्भया,
जब भी तुम्हें
निरीह, विवश..लाचार...असहाय बनाया गया
लोगों ने तुम्हारा नाम रखा
निर्भया

तुम्हारी विवशता मैंने देखी है
एक छली के हाथों
अपहृत होते..
उस भरी सभा में
निर्वस्त्र होते..
फिर राम की प्रतीक्षा में
पत्थर हुई युगों तक
निष्प्राण
तुम विवश ही तो थी..
धधकती चिता में
सुलगते हुए
बिना गलती के
मृत पति के साथ जलते हुए भी
तुम्हारी विवशता  
देखी है मैंने
उन लपटों में तुम्हारा चीत्कार,
भागने की उत्कंठा,
जीने की चाहत
मजमा देख रहे लोगों को मंजूर न था.
उन्होंने तुम्हें देवी बनाया
और नाम रखा ‘निर्भया’
तुम क्या करती ?
विधि का विधान,
हमारा संविधान,
समाज का नियम,
तुम्हारा संयम
प्रचलित कानून
लोगों की आँखों में ख़ून
धार्मिक अन्धविश्वास
बुझ चुकी आस
माथे का कलंक
वैधव्य का दंश
ईश्वर की इच्छा
राम मनोहर की प्रतीक्षा
मान चुपचाप सती होती रही

पर जब सचमुच तुमने निर्भया बन
खुली हवा में उडने की ताकत पैदा कर ली
तो तुम्हारे पर कतरने और ज़िन्दा ही मार देने की
फिर से साज़िश रची गई
किसी चलती बस में
महानगर में
सुनसान सडकों पर
तुम्हारे पर बेरहमी से काटे गए
और एक बार फिर तुम्हें
कहा गया ‘निर्भया’

क्या तुमने देखा नहीं कि
राम से राम मनोहर तक आने में
कितने बरस बीते
थोडी प्रतीक्षा करो   
राम मनोहर से
फिर किसी राम स्वरूप
या रामदरस तक आने में
हजार बरस लगेंगे
तबतक इन दरिंदों से भय खाओ
मत कहलाओ निर्भया
क्योंकि यह नाम एक छलावा है
  

Sunday, August 11, 2013

पचपनवें जन्मदिन पर

आज मैं हुआ पचपन का
याद आ रहा एक वाक़या बचपन का
बारह का हुआ तो नानी अक्सर कहती थी
‘‘बारह बरस का पुत्ता, भए तो भए नहीं तो गए”

तेरह से उन्नीस तक ‘टीन’ था
सो टीन की तरह बजता रहा...
बीसेक साल की उम्र में काम मिला  
तो नानी बहुत खुश हुई थी
’पुत्ता बन गया’
और मैं.....
साँप-छ्छून्दर की तरह
काम न निगलते बना न उगलते
आज तक फँसा हुआ हूँ

मन ने चाहा कोई गीत रचूँ
कुछ गुनगुनाऊँ,
दिल ने कहा कुछ रंग भरूँ
कोई चित्र बनाऊँ
बुद्धि ने कहा लेख लिखूँ
कोई ग्रंथ गढूँ 
तभी काम ने कहा
हवाओं में उडने की तुम्हें इजाजत नहीं
नौकरी की पुस्तिका में
गीत रचने 
चित्र बनाने या
ग्रन्थ लिखने के निर्देश नहीं
हमें चाहिए तुमसे
लाभ और वृद्धि
इसलिए काबू में रखो
अपना मन और बुद्धि 
ये सब करने थे तो काम में न आते
और 'पुत्ता गए' कहलाते

आज मैं अपनी टूटी हुई आवाज
सादा कैनवास और
कोरे कागज को देखते हुए
सोचता हूँ
कितना अच्छा होता मैं
बारह बरस पर ही रूका रहता. 


Friday, February 1, 2013

बलवा



एक दिन शोर मचा कि
शहर के बाहर
किसी खेत में मिली
एक सर कटी लाश....
लोग जुडे
कानाफूसी हुई,
मजमा लगा
फिर भीड बढी
हंगामा हुआ
लाठियाँ चलीं
सर फूटे
आग लगी
घर जले
धू-धू उठा
गाडियाँ फुँकी,
गोलियाँ चलीं
ख़ून बहा
लोग मरे...
जाँच चल रही है
बलवे का जिम्मेदार कौन
वो सर कटी लाश
या शहर के सर फिरे लोग...