आज मैं हुआ पचपन का
याद आ रहा एक वाक़या बचपन का
बारह का हुआ तो नानी अक्सर कहती थी
‘‘बारह बरस का पुत्ता, भए तो भए नहीं तो गए”
तेरह से उन्नीस तक ‘टीन’ था
सो टीन की तरह बजता रहा...
बीसेक साल की उम्र में काम मिला
तो नानी बहुत खुश हुई थी
’पुत्ता बन गया’
और मैं.....
साँप-छ्छून्दर की तरह
काम न निगलते बना न उगलते
आज तक फँसा हुआ हूँ
मन ने चाहा कोई गीत रचूँ
कुछ गुनगुनाऊँ,
दिल ने कहा कुछ रंग भरूँ
कोई चित्र बनाऊँ
बुद्धि ने कहा लेख लिखूँ
कोई ग्रंथ गढूँ
तभी काम ने कहा
हवाओं में उडने की तुम्हें इजाजत नहीं
नौकरी की पुस्तिका में
गीत रचने
चित्र बनाने या
ग्रन्थ लिखने के निर्देश नहीं
हमें चाहिए तुमसे
लाभ और वृद्धि
इसलिए काबू में रखो
अपना मन और बुद्धि
ये सब करने थे तो काम में न आते
और 'पुत्ता गए' कहलाते
आज मैं अपनी टूटी हुई आवाज
सादा कैनवास और
कोरे कागज को देखते हुए
सोचता हूँ
कितना अच्छा होता मैं
बारह बरस पर ही रूका रहता.
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