Wednesday, May 23, 2012

अज़ीज़ साहब की शान में


भुलाए न भूलेगा मुझे वो दिन
देखना इंडिया हैबिटैट सेंटर में
एक मुसव्विर का शाहकार
चित्र जैसे बोलते हों
और हो जाते हों साकार
कैनवास पर उकेरे अज़ीज के घोडे
इतने जीवंत कि मेरे मन को भी ले उडे
कहीं बनारस के घाट तो कहीं गोलकुंडा के किले
कभी अजंता की गुफा में या महाबलीपुरम चले
ताल-तलैयों में लिली के फूल या सुंदर कंवल
जैसे छिटकी चाँदनी में आसमां गाता ग़ज़ल

हर कृति अलफाज़ से परे थी
क्या ख़ूब रंगों की छटा थी
बादलों की ओट में छिपता चाँद
या फिर कहीं काली घटा थी
अब यही दिल में उठ रही हैं ख्वाहिशें
अल्लाह करे उन पर हों बरकतों की बारिशें !!
23.2.2011
(अज़ीज़ साहब विश्वविख्यात चित्रकार हैं जिनसे मिलने का सौभाग्य मुझे दिल्ली प्रवास के दौरान हुआ था)

तुम्हारे लिए, सुधा


ज़िन्दगी के सफर में
हम इतनी दूर तक आ पहुँचे
कई लमहे, खट्टी-मीठी यादें
भागते पेड और बिजली के खम्भों
की तरह पीछे छूट गए
पर कुछ यादें उन सितारों की तरह
जहाँ भी जाउँ साथ ही चलते हैं
और मुझसे कहते हैं
कि अब यह सफर
तन्हा नहीं कटता

ढूँढा करता है दिल मेरा
हर छोटी-मोटी चीजों के लिए तुम्हें
टूथ-ब्रश में पेस्ट लगाने से लेकर
नहाने जाते वक्त तौलिए और कपडे देने
और फिर ऑफिस जाते वक्त लंच देने से लेकर
रात सोने के पहले बिस्तर में मसहरी लगाने तक...
मेरे ख़याल करने की
तुम्हारी इन्हीं आदतों ने
हर वक्त तुम्हें
मेरी निगाह में महफूज़ रखा है

सुबह की चाय
ड्राइंग रूम में सोफे पर
साथ बैठ कर पीने
और ऑफिस से घर वापस आने पर
तुम्हें पास बिठाकर
गुफ्तगू करने की ख़्वाहिशों ने
हमेशा ही तुम्हे मेरे हमराह रखा है

तुम्हारे जन्मदिन पर
यही दुआ है कि
तुम जीती रहो
मेरे सफर के अंतिम पडाव तक
बन कर मेरी हमराह
फिर से हमारा हो साथ
कि कट जाए बाकी दिन
लिए एक दूजे का हाथ !!

Thursday, May 10, 2012

नेफ्थलीन की गोलियाँ



मदर्स डे पर कल
अम्मा का पुराना टीन का बक्सा खोला
एक पुरानी बनारसी साडी निकली
जिसके पाड में सोने की ज़री का काम था
एक वूलेन शॉल मिला
जिसमें अभी तक कीडे नहीं लगे थे
एक चाँदी की तश्तरी
फूल का एक लोटा
पूजा की एक थाली
जिसकी चमक उसके लगातार माँजे जाने की निशानी थी
सफेद तकिए के दो कवर,
उसपर की गई कढाई,
क्रोशिया की बिनाई वाली एक झालर
कुश और मूँज से बनाई गई
लाल, पीले और हरे चटक रंगों की एक डलिया

एक अलबम
काले पन्नों पर सटी
बाबूजी के युवावस्था से लेकर
हम सब के बडे होने तक की
श्याम-श्वेत तस्वीरें
एक तस्वीर में माँ की गोदी में
निश्चिंत सा पसरा गुलथुल सा
मेरा छोटा भाई और बगल में खडा मैं
एलिफैंट ब्रांड की दो-चार कापियाँ
उनमें लिखे महादेवी और टैगोर के गीत
एक डायरी
जिसमें उतारी
नवनीत, धर्मयुग या साप्ताहिक हिन्दुस्तान से
खूबसूरत नज़्में और शायरी,
इन सारी चीजों को बचाकर रखने
और मुझतक सौंप देने की जिम्मेदारी निभाती
बक्से की तह में पडी
दुबली हो चुकी
कई
नेफ्थलीन की गोलियाँ !!

अंतर्देशीय पत्र



एक पुराने बक्से की तह में
बिछे अख़बार के नीचे से निकला
एक
अंतर्देशीय पत्र

गुज़रे ज़माने की सोंधी खुशबू लिए
लिखने वाले की साहित्यिक रुचि का द्योतक
व्याकरण की शुद्धियाँ
कविताओं की पँक्तियाँ
शेरो-शायरी से भरा
एक
अंतर्देशीय पत्र

महात्मा गाँधी की तस्वीर वाला डाक टिकट
उस पर लगा गोल काला मुहर
चिट्ठी में एकाध जगह फैली स्याही
पिताजी का माँ के नाम लिखा
वह
अंतर्देशीय पत्र

बुज़ुर्गो के लिए चरण-स्पर्श
छोटों को प्यार
माँ के लिए मनुहार
अम्मा का ख़याल
पिता के सवाल
हाँ
वह अंतर्देशीय पत्र

वक्त के थपेडों में खोया हुआ
मोबाइल के एसएमएस की
शार्ट-कट की भाषा में
इलू, सीयू, टूयू सम्बोधनों में
अपना वजूद खोजता हुआ
बदरंग, मटमैले,
संदूक में बिछे अख़बार के नीचे से
कभी कभार
झाँक लेने वाला 
वह अंतर्देशीय पत्र !!

फाउंटेन पेन और रीफिल बॉल-प्वाइंट पेन


बुक शेल्फ में पडी सदियों पुरानी फाउंटेन पेन
मेज़ पर रखे पेन-स्टैंड में सजे
रंग-बिरंगे बॉल-प्वाइंट पेन से कहती है,
बहन...
आज तुम्हारा ज़माना है
पर कल मेरा ज़माना था
बीस-पचीस वर्ष ही हुए कि मैं पुरानी धरोहर की तरह
बतौर बाप-दादाओं की निशानियाँ
किसी सन्दूक में,
माँ-दादी के टिनही बक्से में
या बुक शेल्फ में किताबों की कतारों के पीछे
सहेज कर रख दी गई...
वक्त की रफ्तार में तुमने मुझे काफी पीछे छोड दिया
पर भूली-बिसरी यादों की धूल हटाने पर मुझे
आज भी याद है
जब प्रेमचंद की खुरदुरी ऊँगलियों ने मुझे बडे ही एहतियात से सँभाला था
और गोदान के पन्नों पर दौडाया था
मुझे यह भी याद है
जब गुरुदेव टैगोर ने मुझे स्नेहिल स्पर्श दिया
दिव्य प्रेम और समर्पण से उन्होंने मुझसे काग़ज़ों पर
मोतियों के दाने बिखराए और
गीतांजलि के छन्द लिखवाए...

न जाने कितने महानुभावों ने मुझसे साहित्य और विज्ञान
की उत्कृष्ट रचनाएँ करवाईं
जिनके विचार उनके ज़ेहन से होते हुए ऊँगलियों के रास्ते
मेरी निब पर अक्षर बनकर उभरते थे
और मैं सरपट काग़ज के उन पन्नों पर दौडती थी..
मुझे धुँधली-धुँधली याद अभी भी है कि
लोग मुझे उपहारस्वरूप दूसरों को दिया करते थे
महँगी भी हुआ करती थी मैं
एवर शार्प, पार्कर, और ब्लैक बर्ड नाम की मैं
दामादों को बतौर नज़राना दी जाती थी
उनकी शेरवानी या कोट की ऊपरी ज़ेब में
चमकती, इठलाती फिरती थी मैं
वियोग और विछोह के दिनों में
उनके प्रेम-पत्रों की मैं राजदार बनी
मुझे इस बात का फ़ख़्र है कि
बचपन में अपने पिता की मेज़ से उठा लेने के
ज़ुर्म में नेहरू की पिटाई का मैं कारण बनी थी...

पर अब यह सब गुज़रे ज़माने की बातें हैं
मुझमें प्राण-रस का संचार करने वाली
चेलपार्क’, ‘सुप्रा और सुलेखा भी सूख गई
कइयों की कमीज़ें ख़राब करने का इलज़ाम भी लगा उनपर
मैं अकेली क्या करती?
चुपचाप अतीत की यादों के सहारे जी रही हूँ
पर एक बात कहना चाहती हूँ बहन...
बुरा मत मानना..
जीने के लिए तुम्हें भी मधुर यादों को संजोना होगा
मैं यह मानती हूँ कि ज़ेल और सेलो से
तुममें निखार आया है
पर जब तुम्हें याद आएगा कि लोग तुम्हें
यूज एंड थ्रो भी कहते थे
तो क्या अच्छा लगेगा ?
एसएमएस के युग में लिखना भूल रहे लोग
न जाने कैसी-कैसी चीजों के लिए
तुम्हें आजकल व्यवहार में ला रहे हैं,
सुनकर हैरत होती है
कोई तुमसे अपनी पीठ खुजाता है
तो कोई कान
कोई पाज़ामे में नाडे घुसाने के लिए तुम्हें ढूँढता है
तो ट्रेनों में बंद पंखे घुमाने के भी काम आ रही हो तुम..
सोचो, कल जब तुम भी अतीत के गर्त में जाओगी
तो क्या इन्हीं यादों के सहारे जियोगी ?