यह
ठीक है कि मेरी कोई सरहद नहीं
गाँव
नहीं
शहर
नहीं
मुल्क
नहीं, वतन नहीं
पर
कोई पूछे मुझसे तो मैं कहूँ
कि
गाँव ही है मुझे पसन्द
गाँव
की मिट्टी की खुशबू
जब
मुझमें घुलती है
तो
बिखेरती हूँ मैं सुगंध
इसीलिए
गाँव ही है मुझे पसन्द....
अमराइयों से गुजरते हुए
खेतों
से मचलते हुए
लहलहाते
बालियों को चूमते हुए
कृषकों
को उमगाते हुए
गृहणियों
को उकसाते हुए
बहती
हूँ मैं मंद-मंद
गाँव
ही है मुझे पसन्द..
खुशबू सी घुलती है
धूप
भी मीठी लगती है
लगते
हैं पेडों पर झूले
मिलते
हैं भटके औ’भूले
निकलती
हैं लटाइयाँ
माँझे
होते हैं धागे
उडती
हैं पतंग
गाँव
ही है मुझे पसंद
ये काटा...लो...वो काटा
आपस
में सुख-दुख को बाँटा
कटी
पतंग तो दौडे बच्चे
जिनके
मन होते हैं सच्चे
उनकी
मस्ती मुझे लुभाती
इधर-उधर
उन्हें खूब नचाती
हिचकोले
खा बच्चे भागे
आधे
नंग-धडंग
इसीलिए
गाँव है मुझे पसन्द....
तुम्हारे शहर में ?
तुम्हारे
शहर में कहाँ मुझको मिलती
वो
आशा की ज्योति वो बच्चों की मस्ती
तुम्हारे
शहर में तो खबरें हैं दंगे-फसाद के
बडे
क्या, बच्चों के मन भी भरे अवसाद से
करें
सब शोर-शराबा
कहीं
पर खून खराबा
अपना
दामन बचाते
नाम
मेरा लगाते
सब
यही कहते फिरते
”यह उल्टी हवा है,
यह
कैसी हवा है?’’