Monday, October 27, 2008

बादल तुमसे ऐसी उम्मीद नही थी

बादल तुमसे ऐसी उम्मीद नही थी

बादल तुम कितने निष्ठुर हो
फट गए वहीं
जहाँ मजदूर काम करते थे
यह न सोचा की शाम को
बाट जोहती आंखों की पुतलियाँ
जब सैलाब में तैरेंगी,
भूख से बिलबिलाते बच्चों को
वे क्या जवाब देंगी ?
यह अलग बात है कि
बच्चे जो अभी ठीक से
खड़े होना भी नही सीख पाए हैं
उनकी अक्ल उनके पेट से
तुंरत बड़ी हो जायेगी
और वे उन आंखों को पढ़ते ही
बिना कुछ कहे
थक-हार सो जायेंगे
और तुम?
तुम गरजोगे,
अट्टहास करोगे,
इधर- उधर दौडोगे ,
फ़िर खोजोगे
किसी पथराई हुई आंखों को
जिसने तुम्हारे बेवक्त आने पर
हमेशा ही अपना सर धुना है...
बरसने से पहले तुमने
क्या कभी सोचा
की उस बूढे की हड्डियों में
तुम्हारी बूंदों की खिलवाड़ सहने की अब ताकत नहीं रही
तुम्हें यह भी याद नहीं आता कि
जिसके पास पहनने ओढ़ने को भी कुछ नहीं
प्लास्टिक की चादर ओढे
तुम्हारी निर्मोही बूंदों से
अपने आप को कैसे बचा पायेगा ?
बादल, तुम निष्ठुर ही नहीं, ढीठ भी हो।


तुम्हें तो बस याद है वह रात
जब तुम्हारे बरसने पर
वह छत पर निकल आई थी
और तुम्हारी बूँदों को
अपने जिस्म पर लुढकने की इजाजत दे
तुम्हें उन्मादित कर दिया था


त्तुम्हें तो याद है वह दोपहर भी
जब उस लडके ने
अपनी क्लास छोड
मोटर-साइकिल निकाल ली थी..
और चिपके दोनों
आवारा घूमते सडकों पर
आडे-तिरछे ड्राइविंग करते,
हँसते खिलखिलाते,
  कहते..
बरसो....और बरसो...
उन सिरफिरों की बात
मान तुम बरसते रहे
और इतना बरसे कि
थमना ही भूल गए
यह भी भूल गए कि
वह बूढा कभी अपनी खटिया हटाता
तो कभी अपनी टपकती छत देखता
उसकी गुहार 'कब थमोगे तुम'
तुम्हें सुनाई ही नहीं देती
सच, मतलबी बादल,
तुम ढीठ ही नहीं, कामी भी हो...!!


उस बूढे ने एक उम्र गुजार दी
यह पूछते
जेठ की चिलचिलाती धूप में
तुम क्यों नहीं आते
धधकती जमीन जब तुम्हारी आस में
चीत्कार करती
तब कहाँ छिप जाते
खेतों के बदरंग चेहरे जब तुम्हें पुकारते
तब क्यों नहीं जगते
सूखे ताल-तलैया देख
जीभ निकाले मवेशिओं की भाँ-भाँ सुन
क्यूँ नही पसीजते?
धुप से कुम्हलाये
स्कूल से लौटते बच्चों के चेहरे
तुम्हे क्यूँ नहीं मना पाते?

अरे ओ बादल,
बेकार के तेवर के साथ
तुम कायर भी हो

सच बादल, तुमसे ऐसी उम्मीद न थी ।
...20.10.2007

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