प्रवासी के कुछ ख़त
1.
आज अचानक ही ठंढ बढ गई
घना कोहरा है
गाडी चला रहा है ड्राइवर
सडक के बीच सफेद पट्टी थामे
धीरे-धीरे
एहतियात और एतमाद के साथ
सामने से कोई दूसरी गाडी आ
जाए
गर अचानक
वैसे ही सफेद पट्टी पर
तो दोनों डरते हैं
अपने अपने किनारे पकडने में
2.
रात कुछ ज्यादा हो गई है
लौट रहा हूँ दौरे से
अभी खाना बनाना भी है बाक़ी
और माँजने हैं सबेरे के
बर्तन
ठंढ कुछ बढ गई है
कनकनी सी है हवाओं में
पानी छूने में लगता है डर
हाथ जम न जाए कहीं ...
याद आते हैं वे जाडों की
रात
जब तुम किचेन का काम समेट
आती थी बिस्तर में
और छूती थी
अपने ठंढे हाथों से जिस्म
मेरा
मैं कैसा चिहुँकता था
मेरी नाराजगी से सहम जाती
थी तुम
आज मैं सोचता हूँ
मैं इन जमे हाथों से
गर छू लूँ सुर्ख़ गाल तेरे
तो क्या करोगी तुम
मुझे पक्का यकीं है कि
थाम लोगी हथेलियाँ मेरी
चूम लोगी खुरदुरे हाथ मेरे
पिघला दोगी हाथों की ठंढक
और भर दोगी गर्मियाँ उनमें
है न......
3.
जानती हो...
मैं अब खाना बनाना सीख चुका
हूँ
पहले की तरह
सिर्फ पावरोटी-चाय या मैगी
खाकर
दिन नहीं गुजारता
पूरे सलीके से सब्जियों में
छौंक लगाता हूँ
आकर देखो कभी
तेजपत्ते की खुशबू और हींग
की दाल खाने के बाद
चूमोगी मेरी ऊँगलियाँ भी
तुम
4.
तुम भी तो लौटी होगी देर
शाम दफ्तर से
थक कर निढाल सोफे पर गिरी
होगी
चाय बनाने की भी हिम्मत
नहीं होगी
सैन्डिल फेंकी होगी इधर उधर
और पर्स पडा होगा कालीन पर
यूँ ही घंटे भर पडे रहने के
बाद
उठी होगी और कुछ भी डाल
लिया होगा पेट में बासी
सोने के पहले
बस यही सोच कर तुम्हारे लिए
भी
मैं डाल देता हूँ एक मुट्ठी
चावल कुकर में
जानती हो...
फिर सबेरे छत पर
ख़ूब शोर मचाते हैं परिन्दें
5.
शाम ढलते ही
जब परिन्दे अपने घोंसले की
ओर उडते हैं
रहता हूँ उस वक्त मैं अपने
ऑफिस में
सर घुसाए फाइलों में
और देर तलक बैठा रहता हूँ
जबतक जेनरेटर की घडघड सुनाई
देती है
डरता हूँ घर आने में
घुप्प अँधेरे में सीढियों
पर चढते
कई बार टकराया हूँ दीवारों
से
और करनी पडती है ताला खोलने
में भी मशक्कत
एक मुद्दत हो गई टी.वी.
देखे
कहो, कौन सा सीरियल आजकल देख
रही हो तुम
अब तो आसां हो गई होंगी
तुम्हारी रातें
जब आता होगा तुम्हारे
पसन्दीदा सीरियल का समय
या मिस करती हो न्यूज चैनल की ज़िद्द मेरी
6.
बहुत कुछ बदल गया
अकेले रहने में
अब बाल या नाख़ून बढते हैं
तो महीनों बढे रहते हैं
कोई कुछ भी नहीं कहता
‘शेव’ भी रोज़ नहीं करता
और कपडे भी कहाँ धुल पाते
हैं रोज़ाना
समझने लगा हूँ
क्यों तुम चीजों को
इतना परख कर लेती थी
दूकानों से
‘विम’ अच्छा या ‘एक्सपर्ट’
बेहतर
हथेलियाँ खुरदरी नहीं होंगी
किस साबुन से
कौन सी चीज ‘इकॉनॉमिक’ पैक
में
किन चीजों पर कितनी
छूट
अब मैं भी जान गया हूँ
चीजों के दाम
और पता चल गया है
आटे-दाल के भाव
मेरे बग़ैर तुम कितना बदली
लिखना जरूर
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14.12.2013
7.
कल रात उतर आया था
चाँद मेरे कमरे में
रोशनदान से
सोते वक्त जब करवट बदली
तो चौंक पडा था मैं
नीचे, टाइल्स बीछी फर्श पर
अर्श से उतर कर बैठा था
चाँद
छोटी जगह है यह
शहरी आबो-हवा से दूर
यहाँ पहचानते हैं लोग मुझे
अदब से पेश आते हैं मुझसे
अब चाँद-सितारे भी लग गए हैं
ख़ैर-मकदम में मेरे
18.12.2013