ज़िन्दगी की जमापूँजी में से
जैसे पचास बरस खर्च हुए
वैसे खिसक गए
दो चार और साल
और खडा रहा मैं
जहाँ के तहाँ
हासिल हुए सिर्फ कुछ सफेद बाल
ये ज़िन्दगी भी बडी अजीब शै है
आप चलें,
दौडें या रूके रहें
बीत जाती है यह
पर कर जाती है एक सवाल
और माँगती है जवाब....
मुझे याद नहीं कि
ये चार बरस मैंने खर्च किए
या चोरी चले गए
या राह चलते कहीं यूँ ही गिर गए
या किसी ने मुझसे छीन लिए
....
मैंने रक्खे नहीं हैं कोई हिसाब
मैंने रक्खे नहीं हैं कोई हिसाब
इसलिए कैसे दूँ उसे जवाब...