याद है माँ?
जब बाबूजी थे तो शाम के
वक्त
जमघट लगता था
एक चौपाल सा सजता था....
घेर बाँध हम सब बैठते थे
फिर सुनाते थे बाबूजी
कोई किस्सा... गुज़रे ज़माने
का
या चुनते थे कोई मोती
‘धर्मयुग’ या ‘सारिका’ से
कितना अच्छा बोलते थे
बाबूजी
छोटका तो तुम्हारी गोद में
सर रखकर सुनता था
और फिरती रहती थी तुम्हारी
उँगलियाँ उसके घने उलझे बालों में....
अब जब तुम कुछ कहने आती हो
तो बन्द कमरों के बाहर
देर तक यूँ ही खडी रहती हो
और बिना कुछ कहे वापस लौट
जाती हो
फिर समेट कर रख देती हो सारी
बातें
एक दूसरे के ऊपर तह लगा कर
यादों की मेज़ पर
कि खुले दरवाजे बेटे-बहू के
बंद कमरों के
तो कह लेंगे
या हटे कान से सटे मोबाइल
बालकनी के कोने में खडी घर
की लडकियों के
तब कह लेंगे
या फिर उठे ऊपर लैप टॉप में
सर घुसाए लडकों की आँखें
तो कह लेंगे
रात भर इंटरनेट में चैटिंग
के बाद उठने के वक्त सोए
और सोने के समय जागे
लडके-लडकियों से
कहने-सुनाने की तमाम बातें
यूँ ही जमा करती जा रही हो
तुम
शायद कभी वक्त की गर्द हटा
सुन ले कोई....
या बेमतलब की मान
यूँ ही दम तोड देगी
तुम्हारी आवाज़.... !!
25.4.2014