Monday, March 31, 2014

बचपन की दोस्ती


उफक में खेल रहे हैं आँख मिचौली का खेल तीनों
इनकी दोस्ती बचपन की है
लाख झगडे होने पर भी टूटती ही नहीं

खूब खिझाते दोनों मिलकर सूरज को
कभी पहाड ढँक लेता उसे 
तो कभी बादल

बडा ढीठ है वह,
अपनी हज़ार गज की चादर में लपेट लेता उसे  
गुस्से में सूरज, उझल देता रंगों की बाल्टी
उसकी देह पर
कभी गुलाबी तो कभी टह-टह लाल
या मल देता उसके चेहरे पर गुलाल
तब जाकर कहीं सतरंगी बादल  
ज़रा सी चादर हटाता    

फिर झाँकता सूरज 
लाल-लाल गोल-गोल मुँह लिए
उसकी रोशनी में नहाया हुआ बादल,
ख़ुश हो कर अपनी हज़ार बाँहों में भर लेता उसे 
कहता ‘शुक्रिया ऐ मेरे दोस्त मुझमें रंग भरने के लिए’  

थक जाता सूरज इस खेल में
फिर चल पडता पश्चिम में अपने एक और साथी से मिलने
जिसकी गोदी में सर रख कर सोएगा रात भर
दिन भर का थका-हारा
बेचारा ....

फिर पहाड भी सर उठा कर दमकता रहता दिन भर
और देखता रहता उसे धीरे-धीरे दूर होते

सन व्यू प्वायंट पर जमा लोग फिर दुआ माँगते 
ख़ुदा करे
सलामत रहे
इनकी दोस्ती उम्र भर ...!!



........................... नेपाल में धरान की पहाडियों से सूर्योदय देखते वक्त सोची गई यह कविता 23.3.14.