निर्भया
निर्भया,
जब भी तुम्हें
निरीह, विवश..लाचार...असहाय बनाया गया
लोगों ने तुम्हारा नाम रखा
‘निर्भया’
तुम्हारी विवशता मैंने देखी है
एक छली के हाथों
अपहृत होते..
उस भरी सभा में
निर्वस्त्र होते..
फिर राम की प्रतीक्षा में
पत्थर हुई युगों तक
निष्प्राण
तुम विवश ही तो थी..
धधकती चिता में
सुलगते हुए
बिना गलती के
मृत पति के साथ जलते हुए भी
तुम्हारी विवशता
देखी है मैंने
उन लपटों में तुम्हारा चीत्कार,
भागने की उत्कंठा,
जीने की चाहत
मजमा देख रहे लोगों को मंजूर न था.
उन्होंने तुम्हें देवी बनाया
और नाम रखा ‘निर्भया’
तुम क्या करती ?
विधि का विधान,
हमारा संविधान,
समाज का नियम,
तुम्हारा संयम
प्रचलित कानून
लोगों की आँखों में ख़ून
धार्मिक अन्धविश्वास
बुझ चुकी आस
माथे का कलंक
वैधव्य का दंश
ईश्वर की इच्छा
राम मनोहर की प्रतीक्षा
मान चुपचाप सती होती रही
पर जब सचमुच तुमने निर्भया बन
खुली हवा में उडने की ताकत पैदा कर ली
तो तुम्हारे पर कतरने और ज़िन्दा ही मार देने की
फिर से साज़िश रची गई
किसी चलती बस में
महानगर में
सुनसान सडकों पर
तुम्हारे पर बेरहमी से काटे गए
और एक बार फिर तुम्हें
कहा गया ‘निर्भया’
क्या तुमने देखा नहीं कि
राम से राम मनोहर तक आने में
कितने बरस बीते
थोडी प्रतीक्षा करो
राम मनोहर से
फिर किसी राम स्वरूप
या रामदरस तक आने में
हजार बरस लगेंगे
तबतक इन दरिंदों से भय खाओ
मत कहलाओ निर्भया
क्योंकि यह नाम एक छलावा है